बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
अध्याय - 7.
मौर्य काल
(Mauryan Period)
प्रश्न- मौर्य काल का परिचय दीजिए।
उत्तर -
मौर्य काल - (समय 374-160 ई.पू.) -
चन्द्रगुप्त मौर्य के उपरान्त मौर्य वंश के शासन का उदय हुआ। 374-190 ई.पू. मौर्य वंश में, चन्द्रगुप्त मौर्य 321-297 ई.पू. और अशोक 272-232 ई.पू. के नाम प्रमुख हैं। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार से विश्व - ख्याति प्राप्त की। अशोक के समय में स्थापत्य एवं शिल्प का विकास हुआ। 563 ई.पू. शैशुनाक काल में कला की कोई खास परम्परा तो विकसित नहीं हुई, परन्तु भावी कला की उत्प्रेरक एक महान तेजस शक्ति, भगवान बुद्ध के रूप में अवतरित हुई, जिसने न केवल भारत में अपितु उसकी सीमा से परे दूर-दूर तक के देशों पर अपना व्यापक, स्थायी प्रभाव डाला। यह धार्मिक अशांति का युग था। शताब्दियों तक जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता चलती रही। ब्राह्मणों में यज्ञ, कर्मकाण्ड, बलि प्रथा और जाति - पाँति का पार्थक्य पराकाष्ठा पर था। यज्ञों में बहुत अपव्यय होता था और पशुओं की बड़ी निर्दयता से बलि दी जाती थी। जैन धर्म में भी तप, उपवास एवं अहिंसा के नियम इतने जटिल और दुस्साध्य थे कि प्रत्येक के बल-बूते का काम न था कि उन्हें निभा सके। यद्यपि जैन धर्म के प्रसार के साथ-साथ चित्रकला का भी प्रचलन बढ़ा, परन्तु यह जनता को अधिक ग्राह्य न हो सका। प्राय: जैन साहित्य, जिसमें इस सम्प्रदाय की एक विशिष्ट शाखा जिसमें श्वेताम्बर के विषय की विस्तृत चर्चा है, ताल पत्रों पर उल्लिखित मिलती है। विषय को अधिक ग्राह्य और सुपाठ्य बनाने के लिए उदाहरण रूप में प्रचुर चित्रों का उपयोग किया जाता था, परन्तु ये चित्र जैन धर्म के ऊबभरे जटिल नियम, उपनियमों में जकड़े, महज काल्पनिक और रुढ़ बनकर रह गये। इसमें कोई स्फुरणशील गति, नयापन या ताजगी न थी। इन्हें स्याही से बनाया जाता था और रेखाओं में कोई आकर्षण नहीं होता था। इन तीनों में बौद्ध धर्म ने मध्यम मार्ग अपनाया, जिसमें - (1) सम्यक् दृष्टि (2) सम्यंक् संकल्प (3) सम्यक् वचन (4) सम्यक् कर्मान्त (5) सम्यक् आजीव (6) सम्यक् व्यायाम (7) सम्यक् स्मृति (8) सम्यक् समाधि अष्टांगिक मार्ग थे और अहिंसा, सत्यभाषण, मादक द्रव्यों के परित्याग, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन आदि पर बल दिया गया। उसमें जाति-पाँति का भेद न था और स्त्री एवं शूद्र तक सत्कर्म द्वारा मोक्ष पद प्राप्त कर सकते थे।
धीरे-धीरे बौद्ध धर्म अत्यधिक लोकप्रिय हुआ और तत्कालीन कला एवं शिल्प पर इसकी गहरी छाप स्पष्ट परिलक्षित हुई। बुद्ध के समय जो शक्ति सोलह गणराज्यों वत्स, अवन्ती, कौशल, मगध, भग्ग, मल्ल, मौर्य, शाक्य, विदेह, लिच्छवी, बृजि, योधेय, कम्बोज, सुराष्ट्र, कुरू, कुकुर आदि में विभक्त हो, अनेक मुखी हो गई थी, वह क्रमश: संगठित होती गई। सम्राट अशोक के राज्यकाल तक आते-आते बौद्ध धर्म का सार्वभौम प्रभाव प्रतिफलित हुआ और नवीं दसवीं शताब्दी तक उत्तरोत्तर बढ़ा। यह प्रभाव एकांगी न था वरन् उसमें कितने ही बाहरी प्रभाव आत्मसात् होकर पुष्ट हुये थे। मौर्य साम्राज्य का विस्तार इतनी दूर तक न था कि भारत की सीमा लाँघकर अफगानिस्तान, विलोचिस्तान, मकरान, सिन्ध, कच्छ, कश्मीर और नेपाल तक फैल गया हो। लोकोत्तरचेता सम्राट अशोक की कलाभिरुचियाँ अनेक स्तूपों, स्तम्भों, गुहाओं और राजप्रसादों के निर्माण में केन्द्रित हो गईं। अशोक स्तम्भ जो सांची, सारनाथ, दिल्ली, प्रयाग, मुजफ्फरपुर, बुद्ध की जन्मभूमि लुम्बिनी, लौरिया, नन्दनगढ़ आदि स्थानों में पाये जाते हैं, एक ही किस्म के चुनार के लाल पत्थर को काटकर निर्मित हुए हैं। इनकी ऊँचाई तीस से चालीस फुट तक, भार पचास टन तक और ऊपर से बिना किसी आधार के ये टिके हुए हैं। इसके दो भाग हैं- मुख्य दण्डाकार भाग, जो गोल और नीचे से ऊपर तक चढ़ाव उतारदार है तथा ऊपर का स्तम्भ शीर्ष स्तम्भों की गोलाई, चिकनाहट, निर्माण-प्रक्रिया और अद्भुत ओप में मौर्य काल की कला का चरमोत्कर्ष है। सारनाथ में सिंह - शीर्ष स्तम्भ इतना विलक्षण है कि उसमें सत्, रज, तम की भव्य दृष्टव्य भावना अंतर्हित है। ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् गया से लौटकर भगवान तथागत ने सारनाथ में ही भिक्षु संघ के साथ वर्षावास किया था और यहीं सर्वप्रथम धर्म चक्र का प्रवर्तन किया था। सम्राट अशोक ने बुद्ध के इसी धर्मचक्र प्रवर्तन के स्थान पर इस सुप्रसिद्ध स्तम्भ की स्थापना कराई। शीर्ष पर चारों सिंहों का चारों दिशाओं की ओर मुँह किए बैठे रहना बड़ा ही दर्शनीय है। इनके नीचे चार प्रतिनिधि पशुओं घोड़ा, शेर, हाथी एवं बैल के चित्र बनाये गये तथा बीचों बीच चारों दिशाओं में चार धर्म चक्र अंकित हैं जो चिरकाल से भारतीय जीवन की प्रगति, आध्यात्म-भावना, उसकी मंगलमयी प्रेरक शक्तियों सत्य, अहिंसा, दान, परोपकार, दया और सहिष्णुता के ज्वलंत दिग्दर्शक रहे हैं। भारत के दूरातिदूर अतीत की शौर्य और शक्ति का धार्मिक और आध्यात्मिक भावना का यह शासकीय प्रतीक आज भी स्वीकृत कर लिया गया है।
सारनाथ में ध्वंसावशेषों से ज्ञात होता है कि यहाँ बहुत से मंदिर, मठ, चैत्य, विहार और शिक्षणालयों की स्थापना की गई थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने जो सातवीं शताब्दी में भारत आया था उसने लिखा है कि यहाँ तीस बौद्ध मठ और लगभग सौ हिन्दू मंदिर थे। मठों में तीन सहस्र बौद्ध भिक्षुओं के रहने की व्यवस्था थी। ग्यारहवीं एवं बारहवीं शती के मुस्लिम आक्रमणों ने इन सुन्दर कला स्मारकों को ध्वस्त कर दिया फिर भी अवशिष्ट मूर्तियाँ और भवन निर्माण विधि से तत्कालीन स्थापत्य कला के आदर्शों पर प्रकाश पड़ता है। अशोक का एक स्तम्भ फिरोजशाह तुगलक मेरठ से दिल्ली ले आया गया था। यह अत्यन्त सुदृढ़, ओपदार चिकने पत्थर से काटकर बनाया गया है। यद्यपि देखने और छूने में यह बिल्कुल धातु का बना हुआ सा ज्ञात होता है। चम्पारन के रामपुरवा स्थान में स्तम्भ- शीर्ष पर जो भीमकाय वृषभ- मूर्ति बनी थी, वह बड़ी ही भव्य और कलात्मक है। कुछ स्तम्भों के शिखर पर बारीकी चित्रांकन हुआ है। यह तद्युगीन कलाकारों की सूक्ष्मदर्शी भावना, गहरी उपलब्धि और सौन्दर्य साधना को प्रकट करता है।
अशोक के विषय में प्रसिद्ध है कि उसने तीन वर्ष के अल्पकाल में लगभग चौरासी सहस्र स्तूपों का निर्माण कराया था। अधिकांश स्तूप धूलिसात हो गये, किन्तु इनमें जो कुछ सुरक्षित बच गये हैं उनमें तत्कालीन कला का प्राण रस संचित है। वे स्तूप पवित्र स्थलों अथवा बुद्ध एवं उनके अनुयायियों की भस्मी पर बनवाये जाते थे। ये पत्थर या ईंटों के उल्टे कटोरे के आकार और ठोस गुम्बद से बने होते थे। इन पर प्रायः अभिलेख खुदे होते थे, जिनमें शासन व्यवस्था और धार्मिक कार्यों का विवरण रहता था। सांची का अशोककालीन वृहद् स्तूप, आज भी गर्व से सिर उठाये दर्शक को विस्मय-विमुग्ध कर रहा है। यह उस युग की उन्नत शिल्पकला का द्योतक तो है ही, अशोक के अंतप्रेम की गाथा भी अपने समस्त साज-संभार के साथ अडिग खड़ा है। लंका में उपलब्ध महावंश ग्रन्थ में एक स्थल पर उल्लेख है, "जब राजकुमार अशोक अवन्ती के शासक थे, जिसे उनके पिता सम्राट् बिन्दुसार ने उन्हें सौंपा था तो वे उज्जैनी पहुँचने के पूर्व विदिशा में ठहरे थे। वहाँ विदिशा के श्रेष्ठी की आकर्षक कन्या देवी से उनकी भेंट हुई। उससे उन्होंने विवाह किया और वहीं उनके ज्येष्ठ पुत्र महेन्द्र का जन्म हुआ। दो वर्ष पश्चात् कन्या संघमित्रा उत्पन्न हुईं। सांची की योजना तड़क-भड़क वाली नहीं है, वरन् उसमें अद्भुत सौम्यता और शक्ति का निवास है। महान मौर्य साम्राज्य के पूर्व जो आर्य बौद्ध संस्कृति यहाँ जड़ जमा चुकी थी और जिसने सर्वांगीण रूप से क्रमश: समृद्धि की चरम सीमाएं स्पर्श की थीं, उसकी समन्वित चेतना के पुनीत स्मारक के रूप में सांची का अशोक निर्मित स्तूप चिर अमर है। वृहद् स्तूप की अर्द्धमण्डलाकार गुम्बज की सी शक्ल, इनके चारों ओर एक ऊँची मेधि जो पहले प्रदक्षिणा पथ थी, इससे लगी दाहिनी तरफ की दुहरी सीढ़ियाँ, भूमि से समतल एक अन्य पाषाण वेष्टनी या स्तूप वेदिका जहाँ चतुष्कोण चार तोरण द्वार एक-दूसरे से पृथक बने हैं, इन तोरण द्वारों पर नानाविध मूर्ति सज्जा, उत्कण चित्रण और अतिसूक्ष्म एवं सघन शिल्प से मंडित श्रमसाध्य कारीगरी है। इस प्रकार साँची में भारत के प्राचीन स्थापत्य वैभव का विहंगम दर्शन किया जा सकता है। सांची का मूल स्तूप अशोक के समय निर्मित हुआ, किन्तु तोरण ( वन्दनवार) शुंगकालीन है। तब तक निर्माण कला और भी परिष्कृत हो चुकी थी। ये तोरण द्वारा इतने सुन्दर और कलापूर्ण हैं कि उनकी उच्चतर कला की छाप एकबारगी हृदय पर पड़ती है। आत्यन्तिक रूप से हर कोण और हर पक्ष का निरीक्षण करने से कला की ऐकान्तिक सत्ता का पूर्ण सत्य का भास होने लगता है।
इन चार तोरण द्वारों के वर्गाकार स्तम्भों पर जो उत्कीर्ण मूर्तियाँ और जीवन प्रसंग हैं उनमें कलाकारों की मानवीय सहानुभूति और नैसर्गिक अभिव्यक्ति तो है ही, विषय चयन, कल्पना सामर्थ्य और विविध कला रूपों की प्रचुरता है। दक्षिणी तोरण द्वार पर भगवान बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनायें, सम्राट अशोक की रामग्राम स्तूप की उत्सव यात्रा, कमल-पुष्प, वृक्ष आदि चित्रांकित किये गए हैं। उन दिनों भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ बनाने की प्रथा न थी। अतएव उनकी उपासना के प्रतीकात्मक चिन्ह वृक्ष, चरण, छत्र, पादुका, आसन, कमल, धर्मचक्र, स्वस्तिक अथवा रिक्त स्थान छोड़कर इस ओर संकेत कर दिया जाता था। तथागत के जीवन की चार प्रमुख घटनाएँ - जन्म, ज्ञानप्राप्ति, प्रथम धर्मोपदेश, परिनिर्वाण को आसाधरण प्रतीकों द्वारा व्यंजित किया गया है - यथा, जन्म के लिये सिद्धार्थ जननी महामाया देवी को कमल पुष्प के भीतर आसीन दिखाया गया है। एक अन्य जगह पर नवजात शिशु का तो बोध नहीं होता, परन्तु दो हाथी या महामाया को भद्रघटों से अभिषिक्त कर रहे हैं। बुद्धत्व प्राप्ति के दृश्य को पीपल वृक्ष के नीचे बज्रासन द्वारा अथवा कहीं-कहीं वृक्ष के साथ छतरियों या उपासना-आराधना करती हुई भक्त मंडली द्वारा प्रकट किया गया है। धर्मोपदेश का प्रतीक चक्र है जो सिंहासन या सिंह स्तम्भ पर प्रतिष्ठित है। कहीं-कहीं मृगदाय के स्मृति रूप दो मृग भी दोनों ओर बैठे दिखाए गए हैं। परिनिर्वाण की स्थिति को प्रज्जवलित चिता द्वारा जिसकी अभ्यर्थना में मनुष्य और देवता दोनों खड़े हैं अथवा महानिर्वाण स्तूप द्वारा दर्शाया गया है। पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी तोरण द्वारों पर भी बुद्ध की जातक और पूर्वजन्म की कथाएं बड़ी ही कुशलता से उकेरी हुई मिलती हैं। बड़ेरियों पर पशु, त्रिरत्न और धर्म चक्र अंकित हैं। स्तम्भों के निम्न भाग में प्रहरी यक्ष, उससे भी नीचे भीतर की ओर चौमुखे हाथी और बौने तथा बाहर की ओर वृक्ष सहित यक्षिणियाँ चित्रित की गई हैं। सम्पूर्ण दृश्य आँखों के सामने सजीव हो उठते हैं। नारियों की उत्कीर्ण मूर्तियों में अलंकारों की अपूर्व छटा, शरीर का बहुविधि साज-श्रृंगार और बड़ी ही भावपूर्ण मनमोहक भंगिमाएँ हैं। कहीं-कहीं पर इतना झीना और अल्प वस्त्र उन्हें पहनाया गया है कि शरीर के अंग-प्रत्यंग अनावृत्त रह जाते हैं, किन्तु ऐसा मर्यादित सीमा में ही हुआ है। कहीं भी अश्लीलता या असंयम नहीं आ पाया है। यक्ष - यक्षणियों की प्रतिमाएँ अंकित करने का उस युग में अत्यधिक प्रचलन था। प्रायः हाथ में चँवर लिए हुए उन्हें चित्रित किया गया है। मूर्तियों में भौतिक और आध्यात्मिक, ऐहिक सुख-साधन और उपरामता का समन्वित भाव दृष्टव्य है।
बड़े स्तूप के अतिरिक्त स्तूप संख्या 3 भी दर्शनीय और ऐतिहासिक महत्व लिये है। इस स्तूप की ख्याति इसलिए भी है क्योंकि यहीं से भगवान बुद्ध के दो प्रमुख अग्रश्रावक - सारिपुत्र और मौद्गल्यायन जो उनके दाएँ और बाएँ हाथ समझे जाते थे, के पवित्र अवशेष प्राप्त हुये थे। सन् 1822 में सर्वप्रथम कैप्टेन, जॉनसन ने इस स्तूप का मुँह खोला था। सन् 1851 में जनरल कनिंघम और लेफ्टिनेंट मेसी को शिला के नीचे भूरे पत्थर के दो बॉक्स मिले। प्रत्येक बक्स की लम्बाई-चौड़ाई डेढ़ फुट और उसका आवरण छ: इंच मोटा था। आवरण पर बाहरी लिपि में लिखा हुआ था। दक्षिण की ओर जो बक्स प्राप्त हुआ, उसके भीतर श्वेत पत्थर की छ: इंच चौड़ी और तीन इंच ऊँची एक डिबिया मिली, जिसमें महास्थविर सारि-पुत्र की एक अस्थि रखी हुई थी। उसके साथ तरह-तरह के माला के मनके भी थे। उत्तर से प्राप्त होने वाले बाक्स में महास्थविर मौद्गल्यायन की दो अस्थियाँ प्राप्त हुईं, जिसमें बड़ी अस्थि आधे इंच से भी छोटी थी। सारिपुत्र वाली डिबिया के ढक्कन पर ब्राह्मी अक्षर 'स' और मौद्गल्यायन की डिबिया के ढक्कन पर भीतर की ओर 'म' लिखा हुआ था। ये अस्थियाँ तत्काल लंदन पहुँचाई गईं। वर्षों से इस बात का प्रयत्न किया जा रहा था कि इन्हें पुनः बौद्ध संसार को सौंप दिया जाये। लगभग सौ वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात् अर्हतों के ये पवित्र अवशेष इधर लाये गये और सांची के नवनिर्मित विहार में इनकी पुनर्स्थापना कर दी गई। स्तूप संख्या 2 में भी जनरल कनिंघम को सम्राट अशोक की तृतीय संगति में भाग लेने वाले बौद्ध भिक्षुओं के पावन अवशेष मिले थे। इस स्तूप में कोई तोरण नहीं है, जबकि बड़े स्तूप में चार तोरण और स्तूप संख्या 3 में एक तोरण है। यहाँ कुछ अन्य तोरण भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में बिखरे पड़े हैं।
अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं के लिये, चैत्य, विहार और कुछ कंदरायें भी पहाड़ काटकर बनवाई थीं। इनके अन्दर की पॉलिश शीशे की भाँति चमकती है और शिलाखण्डों पर अंकित लिपि भी सुपाठ्य और स्पष्ट है। चीनी यात्री मेगस्थनीज़ और फाह्यान ने पाटलिपुत्र स्थित मौर्यकालीन राजप्रसादों को स्वयं जाकर देखा था। वे उनके अद्भुत कला-शिल्प और निर्माण चातुर्य को देखकर दंग रह गए थे। फाह्यान ने लिखा है कि ये महल मनुष्यों द्वारा निर्मित नहीं बल्कि देवताओं और दैत्यों द्वारा बनाये गये हैं। मौर्यकालीन स्तूपों की यह परम्परा शुंगकाल तक चलती रही, किन्तु मध्यभारत के नागोद राज्य में निर्मित भरहुत का वृहद् स्तूप ही अधिक प्रसिद्ध हुआ। यहाँ भी साँची की तरह बुद्ध सम्बन्धी जातक कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं का चित्रण मिलता है। यह स्तूप तो नष्ट हो चुका है, परन्तु इसकी मूर्तियों और दृश्यों से अलंकृत वेष्टनियाँ अब भी कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। भारत में लोक-जीवन से सम्बन्धित मनोरंजक दृश्य और व्यंग्य चित्र भी अंकित हैं। बन्दरों वाला दृश्य जो हाथियों को गाजे-बाजे के साथ लिये जा रहा है, बड़ा ही हृदयग्राही और कौतुकपूर्ण है। एक-दूसरे दृश्य में एक आदमी का दाँत एक बड़े भारी संडासे से हाथी द्वारा खींचा जा रहा है इसमें हास्य और व्यंग्य स्पष्ट दृष्टिगोचर है। भारहुत की अधिकांश मानव-मूर्तियाँ चपटी और दोषपूर्ण हैं, किन्तु वे उस युग की कला और लोक-जीवन की दिग्दर्शक हैं।
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- प्रश्न- मोहनजोदड़ो - हड़प्पा की चित्रकला को संक्षेप में समझाइए।
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- प्रश्न- अजन्ता की गुफाओं के चित्रों के विषय एवं शैली का परिचय देते हुए नवीं और दसवीं गुफा के चित्रों का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- अजन्ता की गुहा सत्रह के चित्रों का विश्लेषण कीजिए।
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- प्रश्न- बाघ गुफाओं के प्रमुख चित्रों का परिचय दीजिए।
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- प्रश्न- सित्तन्नवासल गुफाचित्रों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- सिगिरिया की गुफा के विषय में बताइये। इसकी चित्रण विधि, शैली एवं विशेषताएँ क्या थीं?
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- प्रश्न- एलोरा के कैलाश मन्दिर पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- एलोरा के भित्ति चित्रों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- एलोरा के जैन गुहा मन्दिर के भित्ति चित्रों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- मौर्य काल का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- शुंग काल के विषय में बताइये।
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- प्रश्न- मथुरा शैली या स्थापत्य कला किसे कहते हैं?
- प्रश्न- गुप्त काल का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- “गुप्तकालीन कला को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
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- प्रश्न- भारतीय कला में मुद्राओं का क्या महत्व है?
- प्रश्न- भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप एवं बौद्ध मत के विषय में अपने विचार दीजिए।